जलते जलते दिये को यह ,हो आया अभिमान।
लगा सोचने सूर्य चन्द्र से भी मैं हूँ अधिक महान॥
सूरज तो करता है आकर दिन में सिर्फ़ प्रकाश।
किंतु रात के अँधकार का मैं ही करता नाश ॥
शशि भी मिटा नहीं पाता है अंदर का अँधियारा।
मैं ही घर के कोने कोने में करता उजियारा ॥
इस घमंड में शिर ऊँचा कर लगा व्योम में दृष्टि।
अहंकार की आँखों में वह देख रहा था सृष्टि ॥
इतने में ही लगा हवा का हलका झोंका एक।
शिर नीचे हो गया,बुझ गया,रही धुयें की रेख॥
अहंकार की सदा जग्त में होती है यूँ हार ।
करो बिना अभिमान तुम्हें जो कुछ करना हो काम॥
लगा सोचने सूर्य चन्द्र से भी मैं हूँ अधिक महान॥
सूरज तो करता है आकर दिन में सिर्फ़ प्रकाश।
किंतु रात के अँधकार का मैं ही करता नाश ॥
शशि भी मिटा नहीं पाता है अंदर का अँधियारा।
मैं ही घर के कोने कोने में करता उजियारा ॥
इस घमंड में शिर ऊँचा कर लगा व्योम में दृष्टि।
अहंकार की आँखों में वह देख रहा था सृष्टि ॥
इतने में ही लगा हवा का हलका झोंका एक।
शिर नीचे हो गया,बुझ गया,रही धुयें की रेख॥
अहंकार की सदा जग्त में होती है यूँ हार ।
करो बिना अभिमान तुम्हें जो कुछ करना हो काम॥